सोमवार, 5 जून 2023

स्वर विज्ञान योगीजनों का एक गहरा रहस्य है

स्वर विज्ञान योगीजनों का एक गहरा रहस्य है

𝘃𝗼𝗰𝗮𝗹 𝘀𝗰𝗶𝗲𝗻𝗰𝗲 𝗶𝘀 𝗱𝗲𝗲𝗽 𝘀𝗲𝗰𝗿𝗲𝘁 𝗼𝗳 𝘆𝗼𝗴𝗶𝘀?


स्वर विज्ञान

1. स्वर ईश्वर है और यही जीवन है जिसे शवास सरुप में आभास किया जाता है 

2. मूलतः तीन स्वर चलते हैं जिनसे वायु की आपूर्ति होती है पूरे शरीर में संचलित रहती है 

 3. दाँए नथुने से चलने वाले स्वर को सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी का चलना कहते हैं

4. बाएं नथुने से चलने वाले स्वर को चंद्र स्वर या इंगला या इंड़ा नाड़ी का चलना कहते

 5. दोनों नथुनों से चलने वाले स्वर को ईश्वर स्वर या सुषुम्ना नाड़ी का चलना कहा जाता है 

6. शारीरिक तापमान के निर्धारण में इडा और पिंगला नाड़ी बारी बारी से कार्य सम्भालति हैं

7. रीढ़ और दिमाग में मौजूद रहस्यमय नस नाड़ी केंद्रों को ऊर्जा से भरने के लिए और आपका आंतरिक विकास करने के लिए सुषुम्ना नाड़ी चलती है जब सुषुम्ना नाड़ी चले तभी ध्यान, ईश्वर प्रार्थना, ईश्वर दर्शन करना लाभदायी होता है, ये दिन में किसी भी वक़्त चल सकती है जब आप मानसिक और शारीरिक रूप से शांत और स्वस्थ होते हैं।

9. सुषुम्ना जब चले उस वक़्त सोना नहीं चाहिए क्योंकि इससे आयु घटती है ये खासकर शाम 5 से 7:30 तक चलती है, इस समय ध्यान या ईश्वर आरती, प्रार्थना करनी चाहिए.

10. योगियों के तीनो नाडियों और नियंत्रण होता है वो जब चाहें जो नाड़ी चला लें तभी योगी गर्मी और सर्दी से परे होते हैं क्योंकि वो इससे बचने के तरीके जानते हैं और जब उन्हें समाधि में उतरना होता है तो वे सुषुम्ना नाड़ी चला लेते हैं

11. सुषुम्ना नाड़ी पर नियंत्रण बिना प्राणायाम संभव नहीं

12. वरदान और श्राप सुषुम्ना चलने पर ही फलीभूत होते हैं पर इसका गलत इस्तेमाल से आप नरक भोगते हैं

13. स्वर बदलकर आप कई बीमारियों से बच सकते हैं

 14. यदि आप किसी के पास अपने कार्य से संबंधित विषय जैसे नौकरी, मुकदमा, व्यवसाय के लिए जा रहे हैं तो चलते समय उसी पैर को दरवाजे के बाहर रखें जिस ओर का स्वर चल रहा हो, और वहाँ पहुचने पर उस व्यक्ति विशेष को अपने उसी स्वर की तरफ रखें इससे आप सफल होंगे अब ये कोई ज्योतिष ज्ञान मैं यहाँ नहीं लिख रही हूँ आपका शरीर ब्रह्माण्ड और पिंड सरुप में जुडा है 

15. यदि आप अपने जीवन में सफल होना चाहते हैं तो सुबह सूर्य उदय के पहले उठें और जिस और का स्वर् चल रहा हो उसी तरफ के हाँथ को अपने चेहरे पर फेरें और जमीन उसी हाँथ से प्रणाम करें फिर उसी तरफ के पैर को जमीन में रखकर दिन की शुरुवात करें इससे अचूक लाभ होगा ये काल पर विजय पाने के नियम है जिस तरह आप सिर्फ बुधवार, शुक्रवार, रविवार को ही कपड़े धोते हैं, दाढ़ी बनाते हैं, बाल कटवाते हैं, नाखून काटते हैं, इनसे आपकी उम्र बढ़ती है बीमारिया नहीं लगतीं क्लेश, झगड़ा नहीं होता, आपका भाग्यउदय होता है, ये काल पर विजय पाने के अचूक तरीके हैं क्यूंकि आप सृष्टि के अनुकूल हो चलते है 

16.जब सर या शरीर दर्द करे तो जिस तरफ का नथुने से स्वास चल रहा हो उसी करवट लेट जाएं फिर स्वर बदल जायेगा और आपको राहत मिलेगी

17. जिन्हें अपच, जैसी समस्या है तो ध्यान देकर पहले दाहिने या पिंगला स्वर को चला लें बाई करवट लेटकर जब दाहिना स्वर चलने लगे तब ही भोजन करें, और फिर 5 मिनट बाद बाई करवट लेट जाएं लाभ होगा

18. जिन्हें दमा की बीमारी हो और जैसे ही स्वास फूलने लगे तो उस वक्त जो भी स्वर चल रहा हो उसे तुरंत बदल दें और एक महीने तक इसे करें इससे आपको अत्यंत लाभ मिलेगा

छोटी छोटी समस्यायों से बचाते हैं स्वर विज्ञान अति विस्तृत है ये तो उसका क्षुद्र अंश है, सम्पूर्ण स्वर विज्ञान तो आपको महारथी बना सकता है

मंगलवार, 26 मई 2020

शिक्षाष्टकम:-श्री चैतन्य महाप्रभु

जय श्री राधे...

*शिक्षाष्टकम*
*श्री चैतन्य महाप्रभु*

श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा रचित यह 8 श्लोक सभी सम्प्रदाय के वैष्णवो के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन आठ श्लोकों में श्रीमन्महाप्रभु ने अपने प्रयोजन को स्पष्ट कर दिया है।

आप सब भी इन श्लोको को अर्थ सहित पढ़े, और आचरण में लाने का प्रयास करे।

★ चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥

अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥

★ नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥

अनुवाद: हे भगवन ! आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है। प्रभु ! आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥

★ तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥

अनुवाद: स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥

★ न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥

अनुवाद: हे सर्व समर्थ जगदीश! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ  ॥४॥

★ अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥

अनुवाद: हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ॥५॥

★ नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥

अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ॥६॥

★ युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥

अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥७॥

★ आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥

अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥

सभी वैष्णव प्रतिदिन इन श्लोको का पाठ करे, ठाकुर जी ऐसी कृपा अवश्य करेंगे।

*श्री चैतन्य महाप्रभु की जय*


गुरुवार, 30 जनवरी 2020

गंगासागर तीर्थ यात्रा

कोलकाता से सुबह लगभग पांच बजे हम सब ३ कारों से गंगासागर जाने के लिए निकले। यह दूरी रेल या बस द्वारा भी तय किया जा सकती  है। गंगासागर या सागरदीप गंगा नदी और बंगाल की खाड़ी का मिलन स्थल है। यह पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में पड़ता है। गंगासागर वास्तव में एक टापू है। जो गंगा नदी के मुहाने पर है। यह पूरी तरह से ग्रामीण इलाका है। यहाँ की भाषा बंगला है। यहाँ पर रहने के लिए धर्मशाला होटल आदि मिलते है। साथ ही विभिन्न मतों के अनेकों आश्रम भी है। गंगासागर एक पवित्र धार्मिक स्थल है। जहां मकर संक्रांति के दिन 14 व 15 जनवरी को बड़ा मेला लगता है। अभी मेले की तयारी चल रही थी। जिसमें लाखों लोग स्नान और पूजा करने आते हैं। ताकि उनके पाप धुल जाये और आशीर्वाद प्राप्त हो। यह एक पुण्यतीर्थ स्थान है।हम सभी सड़क मार्ग से गंगासागर जाने के लिए कोलकाता से डायमंड हार्बर होते हुए लगभग 98 किलोमीटर दूर सागरद्वीप (काकदीप) पहुँचे। यहाँ से घाट या जेट्टी तक जाने का 10 मिनट का पैदल मार्ग है।  यहाँ गंगा / हुगली नदी को पार करना पड़ता है। काकदीप से पानी के जहाज़ के द्वारा आधे घंटे की यात्रा के बाद हम कचूबेरी घाट पहुँचे। जहाज का टिकिट मात्र दस रुपए हैं। जहाज़ पर 30 मिनट की यह यात्रा बड़ी सुहावनी है। जल पक्षियों के झुंडों को देखने और दाना डालने में यह समय कब निकाल जाता है, पता ही नहीं चलता है। ये पक्षी भी अभ्यस्त है। दाना फेकते झुंड के झुंड पक्षी हवा में ही दाना पकड़ने के लिये झपटते हैं। बड़ा मनमोहक दृश्य होता है।
 इन जहाजों का आवागमन ज्वार-भाटे पर निर्भर करता है। ज्वार-भाटे के कारण जल धारा की दिशा बदलती रहती है। जब जल प्रवाह सही दिशा में होता है तभी ये जहाज़ परिचालित होते है। अन्यथा ये सही समय का इंतज़ार करते हैं। कचूबेरी घाट पहुँच कर बस, कार या जुगाड़ से आगे की यात्रा की जा सकती है। यहाँ से गंगासागर / सागरद्वीप लगभग 30 किलोमीटर दूर है। मार्ग में यहाँ के गाँव नज़र आते हैं। ये मिट्टी की झोपड़ियों और तालाबों वाले ठेठ बंगाली गांव होते है। सड़क के दोनों तरफ हरे-भरे खेत, नारियल के लंबे पेड़, बांस के झुरमुट और केले के पौधे लगे होते हैं। काफी जगहों पर पान की खेती भी नज़र आती है। गंगासागर पहुँच कर कपिल मुनि का मंदिर नज़र आता है । सामने एक लंबी सड़क जल प्रवाह की ओर जाती है। जिसे पैदल या रिक्शा  पर जाया जा सकता हैं। सड़क के दोनों ओर पूजन सामाग्री की दुकाने है। यहाँ पर भिक्षुक और धरमार्थियों की भीड़ दिखती है।
साथ ही झुंड के झुंड कुत्ते दिखते है। दरअसल गंगासागर में स्नान और पूजन के बाद भिक्षुक को अन्न दान और कुत्तों को भोजन / बिस्कुट देने की प्रथा है। गंगासागर पहुँचने पर दूर-दूर तक शांत जल दिखता है।


यहाँ सागर की बड़ी-बड़ी लहरें नहीं दिखती है। शायद गंगा के जल के मिलन से यहाँ जल शांत और मटमैला दिखता है। पर दूर पानी का रंग हल्का नीला-हरा नीलमणि सा दिखता है। प्रकृतिक का सौंदर्य देख कर यात्रा सार्थक लगती है। लगता है, मानो गंगा के साथ-साथ हमने भी सागर तक की यात्रा कर ली हो। हमलोगों ने जल में खड़े हो कर पूजा किया और प्रथा के अनुसार लौट कर मंदिर गए।

मंदिर में मुख्य प्रतिमा माँ गंगा, कपिल मुनि तथा भागीरथी जी की है। ये प्रतिमाएँ चटकीले नारंगी / गेरुए रंग से रंगे हुए हैं। इस मंदिर में अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं। इस मंदिर का निर्माण 1973 में हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि पहले के वास्तविक मंदिर समुद्र के जल सतह के बढ्ने से जल में समा गए है। किवदंती-1) ऐसा माना जाता है कि गंगासागर के इस स्थान पर कपिल मुनि का आश्रम था और मकर संक्रांति के दिन गंगा जी ने पृथ्वी पर अवतरित हो 60,000 सगर-पुत्रों कि आत्मा को मुक्ति प्रदान किया था। ऐसी मान्यता है कि ऋषि-मुनियों के लिए गृहस्थ आश्रम या पारिवारिक जीवन वर्जित होता है। पर विष्णु जी के कहने पर कपिलमुनी के पिता कर्दम ऋषि ने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश किया। पर उन्होने विष्णु भगवान से शर्त रखी कि ऐसे में भगवान विष्णु को उनके पुत्र रूप में जन्म लेंना होगा। भगवान विष्णु ने शर्त मान लिया और कपिलमुनी का जन्म हुआ। फलतः उन्हें विष्णु का अवतार माना गया। आगे चल कर गंगा और सागर के मिलन स्थल पर कपिल मुनि आश्रम बना कर तप करने लगे। इस दौरान राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ आयोजित किया। इस के बाद यज्ञ के अश्वों को स्वतंत्र छोड़ा गया। ऐसी परिपाटी है कि ये जहाँ से गुजरते हैं वे राज्य अधीनता स्वीकार करते है। अश्व को रोकने वाले राजा को युद्ध करना पड़ता है।
राजा सगर ने यज्ञ अश्वों के रक्षा के लिए उनके साथ अपने 60,000 हज़ार पुत्रों को भेजा। अचानक यज्ञ अश्व गायब हो गए। खोजने पर यज्ञ अश्व कपिल मुनि के आश्रम में मिले। फलतः सगर पुत्र साधनरत ऋषि से नाराज़ हो उन्हे अपशब्द कहने लगे। ऋषि ने नाराज़ हो कर उन्हे शापित किया और उन सभी को अपने नेत्रों के तेज़ से भस्म कर दिया। मुनि के श्राप के कारण उनकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिल सकी। काफी वर्षों के बाद राजा सगर के पौत्र राजा भागिरथ कपिल मुनि से माफी माँगने पहुँचे। कपिल मुनि राजा भागीरथ के व्यवहार से प्रसन्न हुए। उन्होने कहा कि गंगा जल से ही राजा सगर के 60,000 मृत पुत्रों का मोक्ष संभव है। राजा भागीरथ ने अपने अथक प्रयास और तप से गंगा को धरती पर उतारा। अपने पुरखों के भस्म स्थान पर गंगा को मकर संक्रांति के दिन लाकर उनकी आत्मा को मुक्ति और शांति दिलाई। यही स्थान गंगासागर कहलाया। इसलिए इस पर स्नान का इतना महत्व है। कहतें है कि भगवान इंद्रा ने यज्ञ अश्वों को जान-बुझ कर पाताल लोक में छुपा दिया था। बाद में कपिल मुनि के आश्रम के पास छोड़ दिया। ऐसा उन्होने ने गंगा नदी को पृथ्वी पर अवतरित कराने के लिए किया था। पहले गंगा स्वर्ग की नदी थीं। इंद्र जानते थे कि गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने से अनेकों प्राणियों का भला होग।
इसके बाद हम रात ७ बजे तक कोलकाता वापस लौट आए। इस तरह से हमने एक महत्वपूर्ण तीर्थ यात्रा पूरी की। जिससे बड़ी आत्म संतुष्टी मिली। कहा जाता है – 
                               सब तीर्थ बार-बार, गंगासागर एक बार।























मंगलवार, 27 जून 2017

एकांगता

एकांगता



हम अपने आसपास कई व्यक्तियों को देखते हैं। जिनमें में से कुछ हमारे परिचित होते हैं तो बहुत से अज्ञात होते हैं। हम इनसे व्यवहार करें या न करें लेकिन हमारी सोच में ये सब अपनी जगह बनाये रखते हैं। हमारे अधिकांश विचार व्यक्तियों या जीवों से जुड़े रहते हैं। अधिकांश जनों का जीवन बाहरी रूप से अन्य लोगों के बारे में सोचते हुए ही बीत जाता है। अपने जन्म से पहले हम इनसे परिचित नहीं होते और मरने के बाद इन सबसे हमारा कोई संबंध नहीं रह जाता किन्तु फिर भी जीवन का एक बड़ा भाग हम अन्यों को समर्पित करके जी रहे होते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में किसी एक चीज़ पर जो हमारा ध्यान नहीं जाता, वह हम स्वयं हैं| इस संसार में कई जीवात्मा हैं| हम भी उनमें से एक हैं| हम भी सबकी तरह संसार में कर्म करने के लिए आये हुए हैं| हमें भी सबकी तरह अपने प्रारब्ध के फल भोगने हैं| शरीर मिलते ही हम कर्म करने के लिए तैयार हो जाते हैं| अपने ज्ञान के अनुसार हम अच्छे और बुरे कर्म करते जाते हैं| इसी से संस्कार बनते हैं और अगले जन्मों की तैयारी होने लगती है| इन सब बातों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दो बातें हैं – एक, हमें जाना कहाँ है; दूसरा, हमारा ज्ञान| हमें जाना कहाँ है या अपनी अंत गति हमें कैसी चाहिए, यह बात हमारी दिशा तय करेगी| उसके लिए अंतर्मुख होना पड़ेगा| अभी हम बाहरी संसार के साथ घुले मिले हैं इसीलिए भीतर नहीं देख पाते| जब सब जीवात्माओं की तरह हम स्वयं को भी पृथक रख कर सोचेंगे तो हमें अपनी शक्ति, योग्यता और दिशा का अनुभव होगा| हमें अपनी वास्तविक सम्पदा के दर्शन होंगे और साथ में ईश्वर के साथ हमारे स्थायी सम्बन्ध का भी अनुभव होगा| उसी आनंद रुपी ईश्वर को जानने और पाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होगी और उसे पाने के लिए हम कर्म करेंगे|
अतः स्वयं को पहचानने के लिए स्वयं को संसार से पृथक रख कर देखना होगा|

कर्म का रहस्य

कर्म का रहस्य

केवल सृष्टिक्रम से होने वाले कार्य ही निर्धारित होते हैं। इसके विपरीत जो भी कार्य हैं, वे सभी जीवात्मा के अधीन हैं और कभी निर्धारित नहीं होते। जैसे दिन के बाद रात आनी ही है। यह सृष्टिक्रम से है और इसका आंकलन किया जा सकता है किंतु कोई व्यक्ति कभी ऐसे यह कार्य करेगा यह कभी नहीं कहा जा सकता। जीव के अधीन कार्य उसकी अपनी इच्छा पर निर्धारित होते हैं। इच्छा जीव के अधीन है और जीव स्वतंत्र है। अर्थात यदि जीव कोई परिणाम लेना चाहता है तो उस परिणाम को प्राप्त करने के लिए उससे संबंधित कर्म उसे करना ही होगा। कार्य नहीं तो परिणाम भी नहीं। प्रतिक्षण वह कार्य को करने के लिए स्वतंत्र है किंतु वह इच्छा करेगा या नहीं, यह कभी भी पूर्वनिर्धारित नहीं होता।
अपने भोगों को जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के फलों के रूप में है। जब उसने वह कर्म कभी किया था तब वह स्वतंत्र था किंतु उसका फल भोगने में अब वह परतंत्र है। यही न्याय भी है। इसीलिए फलित ज्योतिष एक आधारहीन मत है तथा अविद्या है जिसका सिद्धांत से कोई संबंध नहीं है। जीवात्मा को चाहिए कि वह सिद्धांत को अपने अवचेतन मन में उतारे, अपनी कर्म करने की स्वतंत्रता को पहचाने और इस बात पर दृढ़ विश्वास रखे कि उसके सन्दर्भ में कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं है। इच्छित परिणाम के लिए उसे कर्म करना ही होगा। हर क्षण उसे अधिक से अधिक अच्छे कर्म करके अपने लिए पुण्य कर्माशय विकसित करना चाहिए क्योंकि जो क्षण उसके हाथों में है, वैसा क्षण उसे पुनः उपलब्ध नहीं होगा।

शनिवार, 23 जनवरी 2016

ईश्वर की तुलना साकार कुम्भकार से

     कोई जितना अधिक साधन हीन होगा, उसे उतने ही अधिक साधनों की आवश्यकता होगी। हट्टा कट्टा आदमी बैसाखी लेकर नहीं चलता। यदि उसे कोई बैसाखी दे तो वह उसे अपमान समझेगा। इसी के विपरीत एक लंगड़े व्यक्ति के लिए बैसाखी आवश्यकता है। जो उसे बैसाखी देगा, वह उसके प्रति कृतज्ञ होगा। अंतर केवल सामर्थ्य का है।  
       मनुष्य जीव देह धारी है। हाथ पैर उसकी आवश्यकता हैं जिनसे वह अपने कार्य सिद्ध करता है। वह अल्पज्ञ है यानी सीमित ज्ञान वाला। वह एकदेशी है यानी उसका फैलाव केवल उसके अपने शरीर तक ही सीमित है। वहीं ईश्वर सर्वव्यापक है यानी सर्वत्र व्याप्त है। वह सर्वज्ञ है यानी सब जानने वाला। जो सब कुछ जानने वाला हो और कण कण में व्याप्त हो, उसे किस हाथ पैर की जरूरत हो सकती है? वह तो अपना काम एक electron में भी कर रहा है और पृथ्वी के गर्भ से पर्वत निकलते समय भी कर रहा है! जैसे एक computer programmer अपना प्रोग्राम बना कर छोड़ देता है और उसके बाद सॉफ्टवेयर उसके निर्देशानुसार काम करता रहता है, ठीक वैसे ही सृष्टि का programmer वो परमात्मा है। फर्क इतना है बस कि उसके बनाये प्रोग्राम में bugs या त्रुटियाँ नहीं होतीं क्योंकि वह सर्वज्ञ है। यही है सामर्थ्य का अंतर! निराकार रहना उसकी मजबूरी या दोष नहीं है। यह उसका ऐश्वर्य है, उसका वास्तविक स्वरुप है। हमारा देह धारण करना हमारी लाचारी है। यही सिद्ध करता है कि हम अल्प सामर्थ्यवान और अल्पज्ञ हैं।

जीवन और हमारा उत्तरदायित्व

जीवन और हमारा उत्तरदायित्व

Standard
सृष्टि शुरू होते ही ईश्वर ने सृष्टि रचने के पीछे का प्रयोजन और संसार का भोग कैसे करना है, का पूरा आवश्यक ज्ञान वेदों के माध्यम से मनुष्य मात्र को दिया। कैसे सुखी रहना है, कैसे सफल होना है और कैसे दुखों से दूर रहना है, का पूरा ज्ञान वेद में ईश्वर ने दिया ताकि उसकी संतानों को चुनौतियाँ न देखनी पड़े। सुख बढ़ाने वाले कर्मों को मनुष्य करता है तो सुखी और दुःख बढ़ाने वाले कर्मों को करता है तो दुखी रहता है ईश्वर के system के अनुसार। ईश्वर व्यक्ति को सुखी या दुखी प्रत्यक्ष रूप से कभी भी नहीं करता! उसका काम केवल व्यवस्था करने का था और मनुष्य को कर्म करने के लिए स्वतंत्र रखने का था जो उसने किया। अब मनुष्य को चाहिए कि वह उन नियमों को जाने जो ईश्वर ने बनाये हैं और उन पर चलकर सुखी हो क्योंकि वह कर्मों का फल ही संसार में भोगेगा। वे कर्म कौन से हैं जो कल्याणकारी हैं, उसका ज्ञान वेद में ईश्वर दे चुके हैं। यदि कोई सत्य को जानने के लिए प्रयासरत है और वेद ज्ञान से वंचित है तो वह अधिक दिनों तक वंचित नहीं रह सकेगा लेकिन जो वेद के समीप होकर भी दिग्भ्रमित है या अपने मिथ्याज्ञान पर अभिमान करता है तो समझ लो वह जल से भरा मटका लेकर रेगिस्तान में कुएं की तलाश में है।