एकांगता
हम अपने आसपास कई व्यक्तियों को देखते हैं। जिनमें में से कुछ हमारे परिचित होते हैं तो बहुत से अज्ञात होते हैं। हम इनसे व्यवहार करें या न करें लेकिन हमारी सोच में ये सब अपनी जगह बनाये रखते हैं। हमारे अधिकांश विचार व्यक्तियों या जीवों से जुड़े रहते हैं। अधिकांश जनों का जीवन बाहरी रूप से अन्य लोगों के बारे में सोचते हुए ही बीत जाता है। अपने जन्म से पहले हम इनसे परिचित नहीं होते और मरने के बाद इन सबसे हमारा कोई संबंध नहीं रह जाता किन्तु फिर भी जीवन का एक बड़ा भाग हम अन्यों को समर्पित करके जी रहे होते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में किसी एक चीज़ पर जो हमारा ध्यान नहीं जाता, वह हम स्वयं हैं| इस संसार में कई जीवात्मा हैं| हम भी उनमें से एक हैं| हम भी सबकी तरह संसार में कर्म करने के लिए आये हुए हैं| हमें भी सबकी तरह अपने प्रारब्ध के फल भोगने हैं| शरीर मिलते ही हम कर्म करने के लिए तैयार हो जाते हैं| अपने ज्ञान के अनुसार हम अच्छे और बुरे कर्म करते जाते हैं| इसी से संस्कार बनते हैं और अगले जन्मों की तैयारी होने लगती है| इन सब बातों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दो बातें हैं – एक, हमें जाना कहाँ है; दूसरा, हमारा ज्ञान| हमें जाना कहाँ है या अपनी अंत गति हमें कैसी चाहिए, यह बात हमारी दिशा तय करेगी| उसके लिए अंतर्मुख होना पड़ेगा| अभी हम बाहरी संसार के साथ घुले मिले हैं इसीलिए भीतर नहीं देख पाते| जब सब जीवात्माओं की तरह हम स्वयं को भी पृथक रख कर सोचेंगे तो हमें अपनी शक्ति, योग्यता और दिशा का अनुभव होगा| हमें अपनी वास्तविक सम्पदा के दर्शन होंगे और साथ में ईश्वर के साथ हमारे स्थायी सम्बन्ध का भी अनुभव होगा| उसी आनंद रुपी ईश्वर को जानने और पाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होगी और उसे पाने के लिए हम कर्म करेंगे|
अतः स्वयं को पहचानने के लिए स्वयं को संसार से पृथक रख कर देखना होगा|
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