मंगलवार, 27 जून 2017

एकांगता

एकांगता



हम अपने आसपास कई व्यक्तियों को देखते हैं। जिनमें में से कुछ हमारे परिचित होते हैं तो बहुत से अज्ञात होते हैं। हम इनसे व्यवहार करें या न करें लेकिन हमारी सोच में ये सब अपनी जगह बनाये रखते हैं। हमारे अधिकांश विचार व्यक्तियों या जीवों से जुड़े रहते हैं। अधिकांश जनों का जीवन बाहरी रूप से अन्य लोगों के बारे में सोचते हुए ही बीत जाता है। अपने जन्म से पहले हम इनसे परिचित नहीं होते और मरने के बाद इन सबसे हमारा कोई संबंध नहीं रह जाता किन्तु फिर भी जीवन का एक बड़ा भाग हम अन्यों को समर्पित करके जी रहे होते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में किसी एक चीज़ पर जो हमारा ध्यान नहीं जाता, वह हम स्वयं हैं| इस संसार में कई जीवात्मा हैं| हम भी उनमें से एक हैं| हम भी सबकी तरह संसार में कर्म करने के लिए आये हुए हैं| हमें भी सबकी तरह अपने प्रारब्ध के फल भोगने हैं| शरीर मिलते ही हम कर्म करने के लिए तैयार हो जाते हैं| अपने ज्ञान के अनुसार हम अच्छे और बुरे कर्म करते जाते हैं| इसी से संस्कार बनते हैं और अगले जन्मों की तैयारी होने लगती है| इन सब बातों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण दो बातें हैं – एक, हमें जाना कहाँ है; दूसरा, हमारा ज्ञान| हमें जाना कहाँ है या अपनी अंत गति हमें कैसी चाहिए, यह बात हमारी दिशा तय करेगी| उसके लिए अंतर्मुख होना पड़ेगा| अभी हम बाहरी संसार के साथ घुले मिले हैं इसीलिए भीतर नहीं देख पाते| जब सब जीवात्माओं की तरह हम स्वयं को भी पृथक रख कर सोचेंगे तो हमें अपनी शक्ति, योग्यता और दिशा का अनुभव होगा| हमें अपनी वास्तविक सम्पदा के दर्शन होंगे और साथ में ईश्वर के साथ हमारे स्थायी सम्बन्ध का भी अनुभव होगा| उसी आनंद रुपी ईश्वर को जानने और पाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होगी और उसे पाने के लिए हम कर्म करेंगे|
अतः स्वयं को पहचानने के लिए स्वयं को संसार से पृथक रख कर देखना होगा|

कर्म का रहस्य

कर्म का रहस्य

केवल सृष्टिक्रम से होने वाले कार्य ही निर्धारित होते हैं। इसके विपरीत जो भी कार्य हैं, वे सभी जीवात्मा के अधीन हैं और कभी निर्धारित नहीं होते। जैसे दिन के बाद रात आनी ही है। यह सृष्टिक्रम से है और इसका आंकलन किया जा सकता है किंतु कोई व्यक्ति कभी ऐसे यह कार्य करेगा यह कभी नहीं कहा जा सकता। जीव के अधीन कार्य उसकी अपनी इच्छा पर निर्धारित होते हैं। इच्छा जीव के अधीन है और जीव स्वतंत्र है। अर्थात यदि जीव कोई परिणाम लेना चाहता है तो उस परिणाम को प्राप्त करने के लिए उससे संबंधित कर्म उसे करना ही होगा। कार्य नहीं तो परिणाम भी नहीं। प्रतिक्षण वह कार्य को करने के लिए स्वतंत्र है किंतु वह इच्छा करेगा या नहीं, यह कभी भी पूर्वनिर्धारित नहीं होता।
अपने भोगों को जीवात्मा अपने पूर्व कर्मों के फलों के रूप में है। जब उसने वह कर्म कभी किया था तब वह स्वतंत्र था किंतु उसका फल भोगने में अब वह परतंत्र है। यही न्याय भी है। इसीलिए फलित ज्योतिष एक आधारहीन मत है तथा अविद्या है जिसका सिद्धांत से कोई संबंध नहीं है। जीवात्मा को चाहिए कि वह सिद्धांत को अपने अवचेतन मन में उतारे, अपनी कर्म करने की स्वतंत्रता को पहचाने और इस बात पर दृढ़ विश्वास रखे कि उसके सन्दर्भ में कुछ भी पूर्वनियोजित नहीं है। इच्छित परिणाम के लिए उसे कर्म करना ही होगा। हर क्षण उसे अधिक से अधिक अच्छे कर्म करके अपने लिए पुण्य कर्माशय विकसित करना चाहिए क्योंकि जो क्षण उसके हाथों में है, वैसा क्षण उसे पुनः उपलब्ध नहीं होगा।