छोटी उम्रसे ही साधना करना क्यों आवश्यक है ???
अधिकतर युवा साधकोंको साधना करते देख कुछ अल्पज्ञानी उन्हें दिशाभ्रमित करते है कि अभी आपकी उम्र ही क्या हुई है, अभीसे यह सब करने की क्या अवश्यकता है ? साधना तो बुढ़ापेमें सर्व उत्तरदायित्वसे मुक्त होकर करना चाहिए; परंतु यह अपने आपमें यह एक त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण है | छोटी उम्रसे ही साधना करना क्यों आवश्यक है आइए यह देखें !
१. प्राचीन कालमें राजकुमारोंका भी गुरुकुलमें धर्मशिक्षण लेना :
आज हमारी भारतीय संस्कृतिकी रीढ़, वर्णाश्रमव्यवस् था, टूट चुकी है और इसका कारण है धर्मशिक्षण और साधनाका अभाव | पूर्व कालमें राजा महाराजा भी अपने राजकुमारोंको गुरुकुलमें भेजते थे और उसका कारण था कि बाल्य कालमें साधना एवं धर्मके संस्कारका बीजारोपण हो जाए | ऐसे राजकुमार ही भविष्यमें अपने राजधर्मका निर्वाह करनेके पश्चात अपनी अगली पीढ़ीको राजधर्मका पाठ पढ़ा, राज सिंहासनका त्याग कर वानप्रस्थकी ओर प्रवास करते थे | धर्मशिक्षण और साधनाके अभावमें आजके राजनेता और गृहस्थ अपने जीवनके अंतिम चरणमें पहुँचनेपर भी अपने पद और आसक्तियोंका त्याग नहीं कर पाते |
२. ब्रहचर्य आश्रम या विद्यार्थी जीवनमें साधनाकी नींव परम आवश्यक :
वस्तुत: साधना जितनी शीघ्र आरंभ कर सकें उतना ही अच्छा होता है | विद्यार्थी जीवनमें मनकी एकाग्रता और आत्मनियंत्रण(ब् रह्मचर्य), यह दोनों साध्य करनेके लिए आत्मबल आवश्यक होता है | यह साधनाद्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है | आजके विद्यार्थियोंको साधनाकी नितांत आवश्यकता है, हमारी निधर्मी सरकारने साधनाका महत्व आजके युवा मनपर अंकित नहीं किया, परिणामस्वरूप आज अनेक युवा व्यभिचार करते हैं, व्यसन करते है और छोटी उम्रमें बलात्कार और अन्य जघन्य अपराधोंमें लिप्त होते दिखाई दे रहे हैं, यह सब अधर्म एवं साधनाके अभावका परिणाम है |
३. गृहस्थ जीवनमें होने वाले ८०% समस्याओंका मूल कारण आध्यात्मिक होता है !
आज विश्वकी १०० % जनसंख्या धर्माचरणके अभावमें पितृदोष और अनिष्ट शक्तिके कष्टसे पीड़ित है | अनेक गृहस्थके जीवनमें धन एवं सारे वैज्ञानिक सुख-साधन होते हुए भी उनका जीवन नर्क समान है | पाश्चात्य संस्कृतिके अंधानुकरण और वैदिक संस्कृति अनुसार धर्माचरण नहीं करनेके कारण अधिकांश व्यक्ति दुखी और कष्टमें हैं | इसका मूल कारण है कि ब्राह्मचर्य कालमें धर्माचरणका बीजारोपण नहीं हो पाना | हिंदुओं को न घरमें, न मंदिर और न ही विद्यालय या महाविद्यालयमें साधना बताई जाती है परिणामस्वरूप जब ऐसे विद्यार्थी गृहस्थ जीवनमें प्रवेश करते हैं तो उन्हें अनेक आध्यात्मिक स्तरके कष्ट सहने पड़ते हैं क्योंकि शास्त्र वचन है ‘सुखस्य मूल: धर्म:’ अर्थात सुखका मूल कारण धर्म है, सुखी जीवन हेतु धर्माचरण परम आवश्यक है और धर्म ही हमे अध्यात्मशास्त्र और साधनाकी पद्धति सिखाता है | वैदिक धर्ममें गृहस्थको पंच महायज्ञ करनेके लिए बताया गया है परंतु आज अधिकांश गृहस्थ यह नहीं करते अतः उनके जीवनमें आध्यात्मिक कष्टकी भरमार रहती है |
४. मृत्यु निश्चित है परन्तु उसके आगमनका समयका हमें ज्ञात नहीं होता
मृत्यु कभी भी आ सकती है अतः मैं बुढ़ापेमें साधना करूंगी/करूंगा इस प्रकारका दृष्टिकोण पूर्णत: त्रुटिपूर्ण है | मनुष्य जीवनके दो उद्देश्य हैं – पहला प्रारब्धको भोगकर समाप्त करना और दूसरा साधना कर आध्यात्मिक प्रगति करना | प्रारब्धका भोग तो स्वतः ही समाप्त हो जाता है; परन्तु साधना करनेके लिए खरे पुरुषार्थकी आवश्यकता होती है अतः मनुष्य जन्म जो बड़े भाग्यसे मिलता है उसका सदुपयोग साधनामें अवश्य ही करना चाहिए | इसे ही मृत्युकी तैयारी करना कहते हैं |
५. छोटी उम्रमें साधना आरंभ करनेपर चित्तमें नए संस्कार निर्माण नहीं होते :
हमारा मन अशांत क्यों रहता है क्योंकि चित्तपर अनेक जन्मोंके असंख्य संस्कार होते हैं | जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है संस्कारोंके केंद्र एवं अन्य संस्कार भी बढ़ते जाते हैं | जैसे एक पाँचवीं कक्षाका विद्यार्थी जब नामजप करने बैठेगा तो उसके मनमें, अपने माता-पिता, भाई-बहन, खेल, मित्र और विद्यालयके विचार आएंगे | परंतु एक ७० वर्षका वृद्ध जिसने कभी साधना नहीं की, यदि वह नामजपके लिए बैठेगा तो उसे पिछले सत्तर वर्षके सभी संस्मरण ध्यानमें विघ्न डालेंगे !
६. छोटी उम्रसे ही साधना करनेसे पूर्व जन्मोंके संस्कारका नष्ट होना :
छोटी उम्रसे साधना शुरू करनेपर इस जन्मके नए संस्कार चित्त में नहीं निर्माण होते हैं और साधनाकी अखंडता रहनेपर चित्तमें जो पूर्व जन्मके संस्कार है वे भी नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार वृद्धावस्था आने तक मन आनंदी एवं अनासक्त हो जाता है |
७. वृद्धावस्थामें साधना कर संत पद आसीन हुए संत नाम मात्र हैं !
जो भी व्यक्ति साधना कर संत पद पर आसीन हुए वे अल्प आयुसे ही साधनारत हुए | वृद्धावस्थामें जब मनमें अनेक विचार होते हैं और बुद्धि भी काम करना बंद कर देती है और शरीर रोगोंसे ग्रसित हो जाता है तब साधना कर ईश्वरप्राप्ति करना अत्यधिक कठिन है | वैसे भी ईश्वरको हम ताज़े पुष्प चढाते हैं | वृद्ध शरीर ईश्वरप्राप्तिमे ं अडचन ही उत्पन्न करता है !
अधिकतर युवा साधकोंको साधना करते देख कुछ अल्पज्ञानी उन्हें दिशाभ्रमित करते है कि अभी आपकी उम्र ही क्या हुई है, अभीसे यह सब करने की क्या अवश्यकता है ? साधना तो बुढ़ापेमें सर्व उत्तरदायित्वसे मुक्त होकर करना चाहिए; परंतु यह अपने आपमें यह एक त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण है | छोटी उम्रसे ही साधना करना क्यों आवश्यक है आइए यह देखें !
१. प्राचीन कालमें राजकुमारोंका भी गुरुकुलमें धर्मशिक्षण लेना :
आज हमारी भारतीय संस्कृतिकी रीढ़, वर्णाश्रमव्यवस्
२. ब्रहचर्य आश्रम या विद्यार्थी जीवनमें साधनाकी नींव परम आवश्यक :
वस्तुत: साधना जितनी शीघ्र आरंभ कर सकें उतना ही अच्छा होता है | विद्यार्थी जीवनमें मनकी एकाग्रता और आत्मनियंत्रण(ब्
३. गृहस्थ जीवनमें होने वाले ८०% समस्याओंका मूल कारण आध्यात्मिक होता है !
आज विश्वकी १०० % जनसंख्या धर्माचरणके अभावमें पितृदोष और अनिष्ट शक्तिके कष्टसे पीड़ित है | अनेक गृहस्थके जीवनमें धन एवं सारे वैज्ञानिक सुख-साधन होते हुए भी उनका जीवन नर्क समान है | पाश्चात्य संस्कृतिके अंधानुकरण और वैदिक संस्कृति अनुसार धर्माचरण नहीं करनेके कारण अधिकांश व्यक्ति दुखी और कष्टमें हैं | इसका मूल कारण है कि ब्राह्मचर्य कालमें धर्माचरणका बीजारोपण नहीं हो पाना | हिंदुओं को न घरमें, न मंदिर और न ही विद्यालय या महाविद्यालयमें साधना बताई जाती है परिणामस्वरूप जब ऐसे विद्यार्थी गृहस्थ जीवनमें प्रवेश करते हैं तो उन्हें अनेक आध्यात्मिक स्तरके कष्ट सहने पड़ते हैं क्योंकि शास्त्र वचन है ‘सुखस्य मूल: धर्म:’ अर्थात सुखका मूल कारण धर्म है, सुखी जीवन हेतु धर्माचरण परम आवश्यक है और धर्म ही हमे अध्यात्मशास्त्र
४. मृत्यु निश्चित है परन्तु उसके आगमनका समयका हमें ज्ञात नहीं होता
मृत्यु कभी भी आ सकती है अतः मैं बुढ़ापेमें साधना करूंगी/करूंगा इस प्रकारका दृष्टिकोण पूर्णत: त्रुटिपूर्ण है | मनुष्य जीवनके दो उद्देश्य हैं – पहला प्रारब्धको भोगकर समाप्त करना और दूसरा साधना कर आध्यात्मिक प्रगति करना | प्रारब्धका भोग तो स्वतः ही समाप्त हो जाता है; परन्तु साधना करनेके लिए खरे पुरुषार्थकी आवश्यकता होती है अतः मनुष्य जन्म जो बड़े भाग्यसे मिलता है उसका सदुपयोग साधनामें अवश्य ही करना चाहिए | इसे ही मृत्युकी तैयारी करना कहते हैं |
५. छोटी उम्रमें साधना आरंभ करनेपर चित्तमें नए संस्कार निर्माण नहीं होते :
हमारा मन अशांत क्यों रहता है क्योंकि चित्तपर अनेक जन्मोंके असंख्य संस्कार होते हैं | जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है संस्कारोंके केंद्र एवं अन्य संस्कार भी बढ़ते जाते हैं | जैसे एक पाँचवीं कक्षाका विद्यार्थी जब नामजप करने बैठेगा तो उसके मनमें, अपने माता-पिता, भाई-बहन, खेल, मित्र और विद्यालयके विचार आएंगे | परंतु एक ७० वर्षका वृद्ध जिसने कभी साधना नहीं की, यदि वह नामजपके लिए बैठेगा तो उसे पिछले सत्तर वर्षके सभी संस्मरण ध्यानमें विघ्न डालेंगे !
६. छोटी उम्रसे ही साधना करनेसे पूर्व जन्मोंके संस्कारका नष्ट होना :
छोटी उम्रसे साधना शुरू करनेपर इस जन्मके नए संस्कार चित्त में नहीं निर्माण होते हैं और साधनाकी अखंडता रहनेपर चित्तमें जो पूर्व जन्मके संस्कार है वे भी नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार वृद्धावस्था आने तक मन आनंदी एवं अनासक्त हो जाता है |
७. वृद्धावस्थामें साधना कर संत पद आसीन हुए संत नाम मात्र हैं !
जो भी व्यक्ति साधना कर संत पद पर आसीन हुए वे अल्प आयुसे ही साधनारत हुए | वृद्धावस्थामें जब मनमें अनेक विचार होते हैं और बुद्धि भी काम करना बंद कर देती है और शरीर रोगोंसे ग्रसित हो जाता है तब साधना कर ईश्वरप्राप्ति करना अत्यधिक कठिन है | वैसे भी ईश्वरको हम ताज़े पुष्प चढाते हैं | वृद्ध शरीर ईश्वरप्राप्तिमे
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